मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol)
पर्यावरण संरक्षण का ऐतिहासिक समझौता
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल : विषय सूची (Table of Headings)
क्रमांक | शीर्षक (Heading) |
---|---|
1 | मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का परिचय |
2 | ऐतिहासिक पृष्ठभूमि |
3 | प्रमुख उद्देश्य |
4 | प्रमुख प्रावधान |
5 | भारत की भूमिका |
6 | सफलता और उपलब्धियाँ |
7 | चुनौतियाँ और आलोचनाएँ |
8 | भविष्य की संभावनाएँ |
9 | निष्कर्ष |
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल:
1. मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का परिचय
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल 16 सितंबर 1987 को अपनाया गया और 1 जनवरी 1989 से लागू हुआ। यह एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जिसका उद्देश्य ओज़ोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले पदार्थों (ODS – Ozone Depleting Substances) जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) और हैलॉन्स पर नियंत्रण करना है। यह संधि वियना कन्वेंशन (1985) की ही उपज है। इसे सबसे सफल पर्यावरणीय संधि माना जाता है क्योंकि लगभग सभी देशों ने इसे स्वीकार किया और समयबद्ध तरीके से हानिकारक रसायनों के उत्पादन व उपभोग को घटाने पर सहमति जताई।
- 1987 में अपनाया गया और 1989 से लागू हुआ।
- उद्देश्य: ओज़ोन परत को बचाने के लिए हानिकारक रसायनों पर नियंत्रण।
- इसे सबसे सफल पर्यावरणीय समझौता माना जाता है।
2. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1970 और 1980 के दशक में वैज्ञानिकों ने पाया कि मानव द्वारा बनाए गए कुछ रसायन ओज़ोन परत को नष्ट कर रहे हैं। 1985 में अंटार्कटिका के ऊपर “ओज़ोन होल” की खोज हुई, जिसने पूरी दुनिया को झकझोर दिया। इसी कारण वियना कन्वेंशन (1985) के बाद देशों ने एक ठोस कदम उठाने का निश्चय किया और 1987 में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल अपनाया। इसे अब तक की सबसे तेज़ और व्यापक स्वीकृति प्राप्त संधि माना जाता है। इसके परिणामस्वरूप ओज़ोन परत के धीरे-धीरे पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई।
- 1970-80 के दशक में वैज्ञानिकों ने ओज़ोन परत पर खतरे की खोज की।
- 1985 में अंटार्कटिका के ऊपर "ओज़ोन होल" पाया गया।
- वियना कन्वेंशन (1985) के बाद 1987 में प्रोटोकॉल अस्तित्व में आया।
3. प्रमुख उद्देश्य
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का मुख्य उद्देश्य था ओज़ोन परत को बचाना। इसके लिए यह प्रोटोकॉल हानिकारक रसायनों जैसे CFCs, HCFCs, कार्बन टेट्राक्लोराइड और मिथाइल क्लोरोफॉर्म के उत्पादन और उपभोग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने पर केंद्रित था। इसमें विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग-अलग समयसीमा तय की गई ताकि तकनीकी व आर्थिक बोझ को संतुलित किया जा सके। साथ ही, यह समझौता वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग को भी प्रोत्साहित करता है, जिससे वैकल्पिक पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों का विकास हो सके।
- ओज़ोन क्षयकारी पदार्थों (ODS) का उत्पादन और उपभोग कम करना।
- विकसित और विकासशील देशों के लिए अलग-अलग समयसीमा।
- वैकल्पिक पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों को बढ़ावा देना।
4. प्रमुख प्रावधान
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के अंतर्गत देशों को बाध्य किया गया कि वे ODS का उत्पादन और खपत धीरे-धीरे कम करें और अंततः इसे पूरी तरह बंद करें। इसमें विकसित देशों को पहले लक्ष्य पूरा करने की जिम्मेदारी दी गई, जबकि विकासशील देशों को अतिरिक्त समय प्रदान किया गया। इस संधि के तहत एक मल्टीलेटरल फंड की भी स्थापना की गई, जिससे विकासशील देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता दी जा सके। प्रोटोकॉल में समय-समय पर संशोधन कर नए हानिकारक रसायनों को भी सूचीबद्ध किया गया।
- ODS को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना।
- विकसित देशों को पहले लक्ष्य प्राप्त करने की बाध्यता।
- मल्टीलेटरल फंड द्वारा विकासशील देशों को सहायता।
5. भारत की भूमिका
भारत ने 1992 में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को स्वीकार किया। इसके बाद भारत ने ODS पर नियंत्रण के लिए कई नीतियाँ और कार्यक्रम शुरू किए। भारत ने 2010 तक CFCs का उपयोग पूरी तरह समाप्त कर दिया और HCFCs के चरणबद्ध उन्मूलन की दिशा में काम कर रहा है। भारत सरकार ने ओज़ोन सेल (Ozone Cell) की स्थापना की, जो पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत काम करता है। भारत आज वैश्विक स्तर पर उन देशों में शामिल है, जिन्होंने समय से पहले लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफलता पाई है।
- भारत ने 1992 में प्रोटोकॉल को अपनाया।
- 2010 तक CFCs का उपयोग पूरी तरह समाप्त किया।
- पर्यावरण मंत्रालय के तहत "ओज़ोन सेल" की स्थापना की।
6. सफलता और उपलब्धियाँ
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को सबसे सफल अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय संधि माना जाता है। लगभग सभी 198 देशों ने इसे अपनाया, जिससे यह सर्वमान्य वैश्विक समझौता बना। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि यह समझौता नहीं होता तो 21वीं सदी के मध्य तक ओज़ोन परत लगभग नष्ट हो जाती। इस प्रोटोकॉल के कारण 2050 तक ओज़ोन परत पूरी तरह से ठीक होने की संभावना है। इसके अलावा, इसने जलवायु परिवर्तन को भी धीमा किया क्योंकि कई ODS शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें भी थीं।
- अब तक 198 देशों ने इसे स्वीकार किया।
- ओज़ोन परत के धीरे-धीरे पुनर्जीवित होने के प्रमाण।
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन भी कम हुआ।
7. चुनौतियाँ और आलोचनाएँ
हालाँकि मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल बेहद सफल रहा, फिर भी कुछ चुनौतियाँ बनी हुई हैं। HCFCs और HFCs जैसे पदार्थों का उपयोग बढ़ा, जो ओज़ोन परत को सीधे नुकसान तो नहीं पहुँचाते लेकिन ग्रीनहाउस गैसों के रूप में जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देते हैं। विकसित और विकासशील देशों के बीच तकनीकी और वित्तीय असमानता भी एक चुनौती है। इसके अलावा, कई देशों में अवैध रूप से ODS का व्यापार जारी है। इन समस्याओं के बावजूद, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ने वैश्विक सहयोग का शानदार उदाहरण पेश किया है।
- HCFCs और HFCs का बढ़ता उपयोग।
- विकसित और विकासशील देशों के बीच तकनीकी असमानता।
- कुछ क्षेत्रों में ODS का अवैध व्यापार जारी।
8. भविष्य की संभावनाएँ
भविष्य में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की भूमिका और भी बढ़ सकती है। 2016 में किगाली संशोधन (Kigali Amendment) लाया गया, जिसके तहत HFCs पर नियंत्रण का लक्ष्य रखा गया। ये पदार्थ भले ही ओज़ोन को नुकसान न पहुँचाएँ, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल (GWP) बहुत अधिक रखते हैं। यदि सभी देश इस दिशा में काम करें तो 2100 तक वैश्विक तापमान में 0.4°C तक कमी लाना संभव होगा। इस तरह मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल अब केवल ओज़ोन परत ही नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन से निपटने का भी प्रमुख उपकरण है।
- किगाली संशोधन (2016) के तहत HFCs पर नियंत्रण।
- 2100 तक वैश्विक तापमान में 0.4°C की कमी संभव।
- जलवायु परिवर्तन से निपटने में अहम भूमिका।
9. निष्कर्ष
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर्यावरणीय इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। इसने यह सिद्ध किया कि जब पूरी दुनिया एक साथ किसी लक्ष्य की ओर काम करती है तो असंभव भी संभव हो जाता है। इसके कारण ओज़ोन परत धीरे-धीरे पुनर्जीवित हो रही है और पृथ्वी पर जीवन सुरक्षित हो रहा है। भारत समेत सभी देशों की सक्रिय भागीदारी ने इसे सफल बनाया। अब यह संधि जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने में भी योगदान दे रही है। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल वास्तव में वैश्विक सहयोग और सतत विकास का प्रतीक है।
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