काली मृदा(Black Soil)

काली मृदा(Black Soil)

विशेषताएँ, वितरण और कृषि महत्व

परिचय

काली मृदा (Black Soil) जिसे भारत में प्रचलित रूप से रेगर मिट्टी या कॉटन सॉइल भी कहा जाता है, देश की सबसे महत्वपूर्ण और उर्वर मृदाओं में से एक है। यह मुख्य रूप से कपास की खेती के लिए प्रसिद्ध है और इसमें खनिज लवण, नमी धारण क्षमता और प्राकृतिक उर्वरता की प्रचुरता पाई जाती है। यह मृदा विशेष रूप से डेक्कन ट्रैप क्षेत्र में लावा चट्टानों के अपक्षय से बनी है।


काली मृदा का निर्माण

भूवैज्ञानिक उत्पत्ति

काली मृदा का निर्माण मुख्यतः बेसाल्टिक लावा के अपक्षय से हुआ है। यह प्रक्रिया लाखों वर्षों में हुई और इसमें लोहे, मैग्नीशियम, एलुमिनियम, और कैल्शियम कार्बोनेट जैसे खनिज शामिल हैं।

जलवायु प्रभाव

काली मृदा का निर्माण उष्णकटिबंधीय जलवायु और मध्यम वर्षा वाले क्षेत्रों में अधिक होता है, जिससे यह गहरी और पोषक तत्वों से भरपूर बनती है।


काली मृदा की विशेषताएँ

रंग और बनावट

यह मृदा गहरे काले, गाढ़े भूरे या धूसर काले रंग की होती है। बनावट में यह चिकनी और भारी होती है।

खनिज संरचना

  • उच्च चिकनी मिट्टी (Clay) की मात्रा
  • लोहे, मैग्नीशियम, एलुमिनियम और कैल्शियम की प्रचुरता
  • पोटाश की उच्च मात्रा, लेकिन नाइट्रोजन की कमी

नमी धारण क्षमता

काली मृदा की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अत्यधिक नमी धारण करने की क्षमता है, जिसके कारण सूखे मौसम में भी फसलें पनप सकती हैं।

दरारें पड़ना

गर्मी में पानी सूखने पर इसमें बड़ी दरारें पड़ जाती हैं, जो मिट्टी के भीतर हवा का संचलन सुनिश्चित करती हैं।


काली मृदा का वितरण

भारत में प्रमुख क्षेत्र

  • महाराष्ट्र
  • मध्य प्रदेश
  • गुजरात
  • आंध्र प्रदेश
  • कर्नाटक
  • तमिलनाडु के कुछ भाग
  • तेलंगाना

इन राज्यों में काली मृदा मुख्य रूप से डेक्कन पठार पर पाई जाती है।


कृषि में काली मृदा का महत्व

उपयुक्त फसलें

काली मृदा में सबसे अधिक कपास की खेती होती है, लेकिन इसके अलावा यह निम्न फसलों के लिए भी उपयुक्त है:

  • गेहूं
  • ज्वार
  • दालें
  • सूरजमुखी
  • सोयाबीन
  • गन्ना
  • तंबाकू

बागवानी में उपयोग

काली मृदा फलों जैसे संतरा, अंगूर, नींबू और अनार की खेती के लिए भी अच्छी मानी जाती है।


काली मृदा की समस्याएँ

जल निकासी की कमी

अत्यधिक चिकनाई के कारण इसमें जल निकासी धीमी होती है, जिससे जलभराव की समस्या हो सकती है।

नाइट्रोजन की कमी

प्राकृतिक रूप से नाइट्रोजन की कमी होने से नाइट्रोजन उर्वरकों का उपयोग आवश्यक होता है।

दरारों का प्रभाव

गर्मी में दरारें पड़ने से जड़ें क्षतिग्रस्त हो सकती हैं।


काली मृदा का संरक्षण और सुधार

जैविक खाद का उपयोग

गोबर की खाद, हरी खाद और कम्पोस्ट डालने से इसकी उर्वरता बनी रहती है।

सिंचाई प्रबंधन

नियंत्रित सिंचाई से जलभराव की समस्या रोकी जा सकती है।

फसल चक्र अपनाना

फसल विविधीकरण और दलहनी फसलों की खेती से नाइट्रोजन की कमी पूरी होती है।


निष्कर्ष

काली मृदा भारत की कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। इसकी उच्च नमी धारण क्षमता, पोषक तत्वों की प्रचुरता और गहराई इसे अनेक फसलों के लिए उपयुक्त बनाती है। उचित मृदा संरक्षण तकनीकों और उर्वरक प्रबंधन से इसकी उत्पादकता को लंबे समय तक बनाए रखा जा सकता है।



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ