कृषि संकट और इसकी समस्या
सिंचाई, उर्वरक, खाद्यान्न उत्पादन
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि संकट केवल किसानों का नहीं बल्कि पूरे समाज और अर्थव्यवस्था का संकट है। कृषि आज भी देश की रोज़गार व्यवस्था, खाद्य सुरक्षा और औद्योगिक कच्चे माल का मुख्य आधार है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में कृषि क्षेत्र अनेक संरचनात्मक चुनौतियों और संसाधन-संबंधी समस्याओं से जूझ रहा है। इनमें प्रमुख हैं – सिंचाई की समस्या, उर्वरकों का असंतुलित उपयोग और खाद्यान्न उत्पादन की अस्थिरता।
इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भारत में कृषि संकट क्यों गहराता जा रहा है और इन तीन मुख्य समस्याओं की जड़ें कहाँ हैं।
1. सिंचाई की समस्या
(क) मानसून पर निर्भरता
- भारत की लगभग 52% कृषि भूमि आज भी मानसून की वर्षा पर निर्भर है।
- वर्षा का असमान वितरण, सूखा और बाढ़ सीधे उत्पादन को प्रभावित करते हैं।
(ख) सिंचाई सुविधाओं का असंतुलन
- पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सिंचाई सुविधाएँ पर्याप्त हैं।
- जबकि बिहार, झारखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में सिंचाई अब भी सीमित है।
(ग) भूजल संकट
- ट्यूबवेल और पंप सेटों पर अत्यधिक निर्भरता ने भूजल स्तर को खतरनाक रूप से नीचे पहुँचा दिया है।
- विशेषकर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में जल संकट गहराता जा रहा है।
(घ) नहरों और तालाबों की उपेक्षा
- परंपरागत जल स्रोतों का क्षय हो चुका है।
- नहर परियोजनाएँ अधूरी और अव्यवस्थित हैं।
2. उर्वरक की समस्या
(क) असंतुलित उपयोग
- हरित क्रांति के बाद रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग हुआ।
- नाइट्रोजन (N) आधारित उर्वरकों का प्रयोग फॉस्फेट (P) और पोटाश (K) की तुलना में अधिक हुआ।
- परिणामस्वरूप मिट्टी की उर्वरता घटने लगी।
(ख) लागत में वृद्धि
- उर्वरकों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं।
- छोटे और सीमांत किसान महंगे उर्वरक खरीदने में सक्षम नहीं हैं।
(ग) पर्यावरणीय दुष्प्रभाव
- अधिक उर्वरक प्रयोग से मिट्टी और जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं।
- स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ भी सामने आ रही हैं।
(घ) जैविक खाद की उपेक्षा
- परंपरागत गोबर खाद और कम्पोस्ट को नज़रअंदाज़ किया गया।
- इससे मिट्टी का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ गया।
3. खाद्यान्न उत्पादन की समस्या
(क) क्षेत्रीय असमानता
- खाद्यान्न उत्पादन मुख्यतः पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक सीमित है।
- पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में खाद्यान्न उत्पादन अपेक्षाकृत कम है।
(ख) फसल विविधता में कमी
- गेहूँ और धान पर अत्यधिक निर्भरता ने अन्य खाद्यान्नों (ज्वार, बाजरा, दालें) के उत्पादन को पीछे छोड़ दिया।
- इससे पोषण संकट भी पैदा हुआ।
(ग) बढ़ती जनसंख्या और मांग
- बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्यान्न की मांग लगातार बढ़ रही है।
- उत्पादन की गति, मांग के अनुरूप नहीं है।
(घ) भंडारण और वितरण की समस्या
- भारतीय खाद्य निगम (FCI) के गोदामों में भंडारण क्षमता सीमित है।
- खाद्यान्न का बड़ा हिस्सा बर्बादी और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
कृषि संकट के अन्य कारण
- भूमि का विखंडन – छोटे जोतों में आधुनिक तकनीक का उपयोग कठिन।
- बाजार और मूल्य असुरक्षा – किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता।
- कर्ज और ऋण जाल – साहूकारों और बैंकों से लिया गया कर्ज चुकाना कठिन।
- प्राकृतिक आपदाएँ – सूखा, बाढ़ और चक्रवात से किसानों की स्थिति और बिगड़ती है।
- तकनीकी पिछड़ापन – उन्नत बीज और आधुनिक कृषि मशीनों का सीमित उपयोग।
संभावित समाधान
सिंचाई सुधार
वर्षा जल संचयन और जल संरक्षण तकनीक अपनाना।नहर और तालाबों का पुनरुद्धार।
ड्रिप और स्प्रिंकलर जैसी आधुनिक तकनीक का विस्तार।
संतुलित उर्वरक उपयोग
जैविक और हरित खाद को बढ़ावा देना।
संतुलित NPK अनुपात पर जोर।
मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड योजना का प्रभावी क्रियान्वयन।
संतुलित NPK अनुपात पर जोर।
मिट्टी स्वास्थ्य कार्ड योजना का प्रभावी क्रियान्वयन।
खाद्यान्न उत्पादन में सुधार
मोटे अनाज और दालों को प्रोत्साहन।
भंडारण और कोल्ड स्टोरेज की सुविधाओं का विस्तार।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को सुनिश्चित करना।
भंडारण और कोल्ड स्टोरेज की सुविधाओं का विस्तार।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को सुनिश्चित करना।
किसानों की आय वृद्धि
फसल विविधीकरण और पशुपालन को बढ़ावा।
बाजार सुधार और ई-नाम जैसी ऑनलाइन सुविधाओं का विस्तार।
कृषि बीमा योजनाओं को मजबूत करना।
बाजार सुधार और ई-नाम जैसी ऑनलाइन सुविधाओं का विस्तार।
कृषि बीमा योजनाओं को मजबूत करना।
निष्कर्ष
भारत का कृषि संकट केवल उत्पादन की समस्या नहीं है, बल्कि यह संसाधनों की कमी, नीतिगत असमानता और तकनीकी पिछड़ेपन का परिणाम है। सिंचाई, उर्वरक और खाद्यान्न उत्पादन की चुनौतियाँ किसानों की आर्थिक स्थिति को और भी कठिन बना देती हैं। यदि हमें इस संकट से बाहर निकलना है, तो आवश्यक है कि हम जल संरक्षण, संतुलित उर्वरक उपयोग, फसल विविधीकरण और किसानों को उचित मूल्य दिलाने पर विशेष ध्यान दें।
तभी भारत की कृषि सच मायनों में सतत, आत्मनिर्भर और समावेशी बन सकेगी।
 
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