न्यायिक समीक्षा और न्यायिक सक्रियता

न्यायिक समीक्षा और न्यायिक सक्रियता

(Judicial review and judicial activism)

भारतीय न्यायपालिका की भूमिका

भारत का संविधान एक संविधानात्मक लोकतंत्र की नींव रखता है, जिसमें न्यायपालिका को एक स्वतंत्र और प्रभावशाली स्तंभ के रूप में स्थापित किया गया है। इस संदर्भ में दो अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं — न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) और न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism)। ये दोनों तत्व भारतीय लोकतंत्र में संतुलन, जवाबदेही और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए आवश्यक माने जाते हैं।


🔷 न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की परिभाषा और महत्व

परिभाषा:

न्यायिक समीक्षा का अर्थ है – न्यायपालिका का यह अधिकार कि वह विधायिका (संसद या विधानसभा) और कार्यपालिका (सरकार) द्वारा बनाए गए कानूनों, आदेशों और नीतियों की संवैधानिक वैधता की जांच कर सके। यदि कोई कानून संविधान के विरुद्ध पाया जाता है तो न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।

संवैधानिक आधार:

भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा का आधार मुख्यतः अनुच्छेद 13, 32 और 226 में मिलता है।

उदाहरण:

  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती।
  • मिनर्वा मिल्स केस (1980): न्यायपालिका ने यह स्पष्ट किया कि न्यायिक समीक्षा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है।


🔷 न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) की परिभाषा और आवश्यकता

परिभाषा:

न्यायिक सक्रियता का तात्पर्य है – जब न्यायपालिका, विशेष रूप से उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय, जनता के हित में सामाजिक न्याय, लोक अधिकारों और संवैधानिक मूल्यों को सुरक्षित करने हेतु सक्रिय भूमिका निभाते हैं, भले ही मामला पारंपरिक याचिका के रूप में न आया हो।

विशेषताएँ:

  • सुओ मोटो (स्वतः संज्ञान लेना)
  • जनहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL)
  • सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय को प्राथमिकता देना
  • विधायिका और कार्यपालिका की निष्क्रियता पर हस्तक्षेप


🔷 न्यायिक सक्रियता के कुछ ऐतिहासिक उदाहरण

निर्णय प्रभाव
एम.सी. मेहता बनाम भारत सरकार (गंगा प्रदूषण केस) पर्यावरण संरक्षण के लिए न्यायपालिका की भूमिका स्पष्ट की
विशाल नरोन्हा केस जेल सुधारों को लागू करवाने में सहायक
ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम जीवन के अधिकार के अंतर्गत रोज़गार और आवास के अधिकार को जोड़ा गया
शायरा बानो केस (2017) ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया

🔷 न्यायिक समीक्षा बनाम न्यायिक सक्रियता

विशेषता न्यायिक समीक्षा न्यायिक सक्रियता
उद्देश्य संवैधानिक वैधता की जांच सामाजिक और सार्वजनिक हितों की रक्षा
प्रक्रिया पारंपरिक याचिका द्वारा जनहित याचिका या स्वतः संज्ञान द्वारा
सीमाएँ केवल कानून की वैधता पर केंद्रित नीति निर्माण में भी हस्तक्षेप संभव
भूमिका निष्क्रिय (Passive) सक्रिय (Active)

🔷 न्यायिक सक्रियता की आलोचना और चुनौतियाँ

हालाँकि न्यायिक सक्रियता ने अनेक बार गरीबों, वंचितों और पर्यावरण की रक्षा की है, लेकिन इसकी कुछ आलोचनाएँ भी हैं:

  • न्यायपालिका का अति-सक्रिय होना लोकतंत्र के अन्य स्तंभों की स्वायत्तता में हस्तक्षेप कर सकता है।
  • नीति निर्माण का कार्य न्यायपालिका का नहीं है, यह कार्य विधायिका का होता है।
  • लोकप्रियता की होड़ में लिए गए निर्णय कभी-कभी व्यावहारिक रूप से असंभव हो सकते हैं।


🔷 निष्कर्ष: संतुलन की आवश्यकता

न्यायिक समीक्षा और न्यायिक सक्रियता दोनों ही भारत के लोकतांत्रिक तंत्र के आवश्यक उपकरण हैं।
जहाँ न्यायिक समीक्षा संविधान की रक्षा करती है, वहीं न्यायिक सक्रियता सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती है।
परंतु, दोनों की सीमाओं का सम्मान करते हुए, सभी संवैधानिक संस्थाओं को समन्वय से कार्य करना चाहिए ताकि न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल्यों की रक्षा हो सके।


अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

प्रश्न 1: न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) क्या है?

उत्तर: न्यायिक समीक्षा का अर्थ है – न्यायपालिका का यह अधिकार कि वह संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानूनों की संवैधानिक वैधता की जांच कर सके। यदि कोई कानून संविधान के विरुद्ध पाया जाता है, तो न्यायालय उसे अमान्य घोषित कर सकता है।


प्रश्न 2: न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) क्या है?

उत्तर: जब न्यायपालिका विशेष रूप से जनहित के मामलों में स्वतः संज्ञान (Suo Moto) लेकर, या जनहित याचिका के माध्यम से सामाजिक समस्याओं के समाधान हेतु हस्तक्षेप करती है, तो उसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं।


प्रश्न 3: न्यायिक समीक्षा का संवैधानिक आधार कौन-से अनुच्छेदों में है?

उत्तर: अनुच्छेद 13, 32 और 226 भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा का आधार प्रदान करते हैं।


प्रश्न 4: न्यायिक सक्रियता का सबसे बड़ा उदाहरण क्या है?

उत्तर: एम.सी. मेहता बनाम भारत सरकार जैसे केस में पर्यावरण संरक्षण के लिए न्यायपालिका द्वारा दिए गए निर्णय न्यायिक सक्रियता के प्रसिद्ध उदाहरण हैं।


प्रश्न 5: न्यायिक समीक्षा और सक्रियता में क्या अंतर है?

उत्तर:

  • न्यायिक समीक्षा का कार्य केवल कानून की वैधता की जांच करना होता है।
  • न्यायिक सक्रियता में न्यायालय जनहित में नीति-निर्धारण और कार्यपालिका की निष्क्रियता में हस्तक्षेप करता है।


प्रश्न 6: क्या न्यायिक सक्रियता लोकतंत्र के लिए खतरा है?

उत्तर: यदि न्यायपालिका अपनी सीमाओं को लांघकर विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप करती है, तो यह लोकतंत्र के संतुलन को प्रभावित कर सकता है।


प्रश्न 7: क्या आम नागरिक न्यायिक सक्रियता का लाभ उठा सकता है?

उत्तर: हां, जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से कोई भी नागरिक न्यायालय से सामाजिक मुद्दों पर न्याय की मांग कर सकता है।


प्रश्न 8: न्यायिक समीक्षा क्यों महत्वपूर्ण है?

उत्तर: यह संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा करती है और यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी कानून या सरकारी कार्य संविधान के खिलाफ न हो।


प्रश्न 9: क्या भारत के हर नागरिक को न्यायिक सक्रियता से लाभ हुआ है?

उत्तर: हां, पर्यावरण, श्रमिक अधिकार, जेल सुधार, महिला अधिकार आदि क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता के कारण कई सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन संभव हुए हैं।


प्रश्न 10: न्यायिक समीक्षा और सक्रियता में संतुलन क्यों आवश्यक है?

उत्तर: ताकि लोकतंत्र के तीनों स्तंभ – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – अपनी सीमाओं में रहते हुए प्रभावी रूप से कार्य कर सकें।



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