न्यायिक पुनरावलोकन

 न्यायिक पुनरावलोकन 

भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है जहाँ संविधान सर्वोच्च कानून माना गया है। संविधान की रक्षा और उसके मूल ढाँचे (Basic Structure) को सुरक्षित रखना न्यायपालिका का प्रमुख कार्य है। इसी कार्य के लिए भारतीय न्यायपालिका को न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) की शक्ति प्रदान की गई है।


⚖️ न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ

न्यायिक पुनरावलोकन वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय यह परखते हैं कि –

  1. क्या संसद और राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून संविधान के अनुरूप है?
  2. क्या कार्यपालिका द्वारा जारी किया गया आदेश संविधान व कानून की सीमाओं में है?

यदि कोई कानून या कार्यपालिका का आदेश असंवैधानिक पाया जाता है तो न्यायालय उसे शून्य (Void) घोषित कर सकता है।


📜 न्यायिक पुनरावलोकन का संवैधानिक आधार

  • अनुच्छेद 13 – कोई भी ऐसा कानून जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, शून्य होगा।
  • अनुच्छेद 32 और 226 – मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु रिट जारी करने की शक्ति।
  • अनुच्छेद 131–136 – न्यायालयों को विभिन्न संवैधानिक विवादों पर निर्णय की शक्ति।
  • अनुच्छेद 245 और 246 – संसद और राज्य विधानमंडल की विधायी सीमाओं की निगरानी।


📚 प्रमुख न्यायिक निर्णय

  1. केशवानंद भारती बनाम राज्य केरल (1973) – न्यायालय ने कहा कि संविधान का मूल ढाँचा (Basic Structure) बदला नहीं जा सकता।
  2. इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) – न्यायालय ने चुनाव संबंधी संशोधन को असंवैधानिक ठहराया।
  3. मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) – न्यायपालिका ने संसद की संशोधन शक्ति पर सीमा लगाई।
  4. आई.आर. कोएल्हो केस (2007) – नौवीं अनुसूची में डाले गए कानून भी न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में।


🌍 न्यायिक पुनरावलोकन का महत्व

  • संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा।
  • विधायिका और कार्यपालिका की सीमाएँ तय करना।
  • नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा।
  • लोकतंत्र और न्याय के सिद्धांत को बनाए रखना।
  • कानून के शासन (Rule of Law) को सुदृढ़ करना।


⚖️ न्यायिक पुनरावलोकन की सीमाएँ

  • न्यायालय केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है जहाँ स्पष्ट संवैधानिक उल्लंघन हुआ हो।
  • नीति निर्माण में न्यायालय प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
  • न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति अनंत नहीं है; यह संविधान और न्यायिक मर्यादा से बंधी है।


📊 2025 तक न्यायिक पुनरावलोकन की स्थिति

  • हाल के वर्षों में न्यायपालिका ने पर्यावरण संरक्षण (जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण), डेटा गोपनीयता, आरक्षण नीति, चुनाव सुधार और विधायी पारदर्शिता जैसे विषयों पर महत्वपूर्ण निर्णय दिए।
  • आधुनिक तकनीक और डिजिटल अधिकार भी न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में आए (उदा. आधार कार्ड और निजता का अधिकार – पुट्टास्वामी केस, 2017)।
  • 2025 तक न्यायपालिका का ध्यान मुख्य रूप से मौलिक अधिकार बनाम राज्य की नीतियों के संतुलन पर है।


✅ न्यायिक पुनरावलोकन बनाम न्यायिक सक्रियता

  • न्यायिक पुनरावलोकन : केवल संविधान और कानून की कसौटी पर जाँच।
  • न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) : सामाजिक न्याय और नीतिगत मामलों में सक्रिय भूमिका।
  • न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach) : जब न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका की सीमाओं से आगे बढ़ जाए।


🌱 भविष्य की चुनौतियाँ

  • न्यायालयों पर बढ़ता बोझ (लाखों मामले लंबित)।
  • राजनीतिक दबाव और विवादास्पद निर्णय
  • डिजिटल युग में नए अधिकारों की परिभाषा (AI, साइबर सुरक्षा, डेटा प्रोटेक्शन)।
  • संविधान की मूल भावना और बदलते समय की आवश्यकताओं का संतुलन।


निष्कर्ष

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की रक्षा का सबसे सशक्त हथियार है। यह सुनिश्चित करता है कि न तो संसद और न ही कार्यपालिका संविधान से ऊपर हो। 2025 तक न्यायिक पुनरावलोकन ने भारत में मौलिक अधिकार, पर्यावरण, पारदर्शिता और सामाजिक न्याय की रक्षा में अहम भूमिका निभाई है।



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