द्वितीयक क्षेत्र(Secondary Sector)
भारतीय अर्थव्यवस्था का औद्योगिक आधार
भारतीय अर्थव्यवस्था को मुख्यतः तीन क्षेत्रों में बाँटा गया है – प्राथमिक (Primary), द्वितीयक (Secondary) और तृतीयक (Tertiary)। इनमें से द्वितीयक क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र भी कहा जाता है। यह क्षेत्र कच्चे माल को तैयार माल में बदलने की प्रक्रिया से संबंधित है। दूसरे शब्दों में, यह वह क्षेत्र है जो उद्योग, निर्माण और प्रसंस्करण गतिविधियों से जुड़ा हुआ है।
इस लेख में हम विस्तार से देखेंगे कि द्वितीयक क्षेत्र में कौन-कौन सी गतिविधियाँ आती हैं, इसकी विशेषताएँ क्या हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था में इसका महत्व क्या है, और यह किन चुनौतियों तथा अवसरों का सामना कर रहा है।
द्वितीयक क्षेत्र की परिभाषा
द्वितीयक क्षेत्र वह आर्थिक क्षेत्र है जिसमें प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त कच्चे माल का रूपांतरण करके तैयार वस्तुएँ बनाई जाती हैं। उदाहरण:
- कपास से कपड़ा
- गन्ने से चीनी
- लौह अयस्क से इस्पात
- लकड़ी से फर्नीचर
द्वितीयक क्षेत्र की प्रमुख गतिविधियाँ
उद्योग (Industries)
- भारी उद्योग: इस्पात, सीमेंट, कोयला, पेट्रोलियम
- हल्के उद्योग: कपड़ा, खाद्य प्रसंस्करण, रसायन
- आधुनिक उद्योग: सूचना प्रौद्योगिकी आधारित उत्पादन, बायोटेक्नोलॉजी
निर्माण (Construction)
- आवास, सड़क, पुल, मेट्रो, रेल, हवाई अड्डे और औद्योगिक इकाइयाँ
ऊर्जा उत्पादन (Energy Production)
- बिजली, थर्मल पावर, जलविद्युत, सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा
द्वितीयक क्षेत्र की विशेषताएँ
- कच्चे माल पर आधारित – यह क्षेत्र मुख्यतः प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त संसाधनों पर निर्भर है।
- पूँजी प्रधान – इसमें भारी निवेश और मशीनरी की आवश्यकता होती है।
- रोजगार सृजन – ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों तक बड़ी मात्रा में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराता है।
- शहरीकरण को प्रोत्साहन – उद्योगों के कारण नए नगर और महानगर विकसित होते हैं।
- तकनीकी नवाचार – विज्ञान और तकनीक के प्रयोग से उत्पादन क्षमता बढ़ती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में द्वितीयक क्षेत्र की भूमिका
- राष्ट्रीय आय में योगदान – स्वतंत्रता के समय इसका योगदान लगभग 15% था, जो अब बढ़कर 25–27% तक पहुँच गया है।
- रोजगार – करोड़ों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करता है।
- निर्यात में वृद्धि – कपड़ा, इस्पात, रसायन, दवा, ऑटोमोबाइल और इंजीनियरिंग उत्पाद निर्यात की बड़ी हिस्सेदारी रखते हैं।
- बुनियादी ढाँचे का विकास – उद्योगों के कारण सड़क, बिजली, परिवहन और संचार का तेज़ विकास हुआ।
- आत्मनिर्भर भारत – विनिर्माण क्षेत्र "मेक इन इंडिया" जैसी पहलों से स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देता है।
द्वितीयक क्षेत्र के विकास के प्रमुख चरण
1. स्वतंत्रता के बाद (1950–1980)
- सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार: इस्पात संयंत्र, कोयला खदानें, तेल शोधनगृह।
- दूसरी पंचवर्षीय योजना: औद्योगिकीकरण पर विशेष जोर।
2. उदारीकरण के बाद (1991–2000)
- निजी क्षेत्र के लिए अवसर खुले।
- विदेशी निवेश (FDI) आने लगा।
- उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन तेज़ी से बढ़ा।
3. 21वीं सदी का औद्योगिक दौर
- आईटी आधारित विनिर्माण और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग का विकास।
- "मेक इन इंडिया", "डिजिटल इंडिया" जैसी योजनाओं से स्टार्टअप और MSME क्षेत्र को प्रोत्साहन।
द्वितीयक क्षेत्र की चुनौतियाँ
- कच्चे माल और ऊर्जा की कमी – खनिज और बिजली आपूर्ति की समस्याएँ।
- पर्यावरण प्रदूषण – वायु, जल और भूमि प्रदूषण बढ़ रहा है।
- तकनीकी पिछड़ापन – कुछ क्षेत्रों में अभी भी पुरानी मशीनों का उपयोग।
- रोजगार की गुणवत्ता – असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों का शोषण।
- वैश्विक प्रतिस्पर्धा – चीन और अन्य देशों से प्रतिस्पर्धा।
सुधार और सरकारी पहल
- मेक इन इंडिया अभियान – घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहन।
- स्टार्टअप इंडिया और MSME योजनाएँ – छोटे उद्योगों को बढ़ावा।
- औद्योगिक गलियारे (Industrial Corridors) – दिल्ली-मुंबई, अमृतसर-कोलकाता जैसे गलियारों का विकास।
- नवाचार और तकनीक – रोबोटिक्स, एआई, बायोटेक्नोलॉजी में निवेश।
- नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र – सौर और पवन ऊर्जा उत्पादन।
निष्कर्ष
द्वितीयक क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। यह न केवल कृषि और प्राथमिक क्षेत्र से प्राप्त कच्चे माल को मूल्यवर्धित करता है, बल्कि रोजगार, शहरीकरण और राष्ट्रीय आय में भी बड़ा योगदान देता है। हालाँकि, पर्यावरणीय चुनौतियाँ, ऊर्जा की कमी और वैश्विक प्रतिस्पर्धा जैसे मुद्दों का समाधान आवश्यक है। भविष्य में भारत के लिए लक्ष्य होना चाहिए – सतत औद्योगिक विकास, जिससे यह क्षेत्र पर्यावरण और समाज दोनों के साथ संतुलन बनाते हुए आगे बढ़ सके।
 
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