राज्य पुनर्गठन(State Reorganization)

 राज्य पुनर्गठन(State Reorganization)

भारतीय संघ की मजबूती की प्रक्रिया

प्रस्तावना

स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) के बाद भारत को एकजुट राष्ट्र बनाने की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी राज्यों की पुनर्संरचना। अंग्रेज़ों की छोड़ी हुई सीमाएँ राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से बनी थीं, लेकिन वे भाषा, संस्कृति और सामाजिक एकरूपता पर आधारित नहीं थीं। स्वतंत्रता के बाद जनता की मांग उठी कि राज्यों का गठन भाषाई आधार पर किया जाए। इस मांग ने भारतीय राजनीति को गहराई से प्रभावित किया और परिणामस्वरूप राज्य पुनर्गठन आयोग (1953) का गठन हुआ, जिसने आधुनिक भारत की संघीय संरचना को आकार दिया।


स्वतंत्रता के समय भारत की स्थिति

  • 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तो इसमें ब्रिटिश भारत और 562 रियासतें शामिल थीं।
  • सरदार वल्लभभाई पटेल और वी.पी. मेनन के प्रयासों से रियासतों का एकीकरण हुआ, लेकिन राज्यों की सीमाएँ अभी भी अव्यवस्थित थीं।
  • 1950 में संविधान लागू होने के बाद भारत को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया –

भाग A – पूर्व ब्रिटिश प्रांत (जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश)।
भाग B – बड़े रियासती राज्य (जैसे हैदराबाद, कश्मीर)।
भाग C – छोटे रियासती राज्य और मुख्य आयुक्त वाले प्रांत।
भाग D – अंडमान और निकोबार द्वीप समूह।

यह व्यवस्था अस्थायी थी और जनता की अपेक्षाओं को पूरा नहीं करती थी।

भाषाई राज्यों की मांग

  • स्वतंत्रता के तुरंत बाद विभिन्न क्षेत्रों में यह मांग उठने लगी कि राज्यों का गठन भाषा और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर होना चाहिए।
  • 1952 में आंध्र प्रदेश के लिए आंदोलन करते हुए पोट्टि श्रीरामलु का अनशन और मृत्यु इस मांग का प्रतीक बन गया।
  • जन दबाव के कारण 1953 में आंध्र प्रदेश को पहला भाषाई राज्य बनाया गया।


राज्य पुनर्गठन आयोग (1953)

  • सरकार ने राज्यों के पुनर्गठन की समस्या का स्थायी समाधान खोजने के लिए आयोग का गठन किया।
  • इस आयोग के अध्यक्ष फज़ल अली, और सदस्य के.एम. पनिक्करएच.एन. कुंजुरु थे।
  • आयोग ने विस्तृत अध्ययन कर रिपोर्ट सौंपी, जिसमें राज्यों के गठन का आधार भाषा, सांस्कृतिक एकरूपता, प्रशासनिक सुविधा और आर्थिक विकास को माना गया।


राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956

1 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम लागू हुआ।
इसके अंतर्गत 14 राज्य और 6 केंद्रशासित प्रदेश बनाए गए।

इस अधिनियम के तहत –

  • आंध्र प्रदेश, मद्रास, केरल और मैसूर (अब कर्नाटक) को भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया गया।
  • मध्य भारत, विन्ध्य प्रदेश और भोपाल को मिलाकर मध्य प्रदेश बनाया गया।
  • सौराष्ट्र और कच्छ को मिलाकर बॉम्बे राज्य में शामिल किया गया।
  • पंजाब और पटियाला-पूर्वी पंजाब राज्य संघ (PEPSU) को मिलाया गया।

आगे के परिवर्तन

राज्य पुनर्गठन की प्रक्रिया 1956 पर समाप्त नहीं हुई। बाद में कई और बदलाव हुए –

  • 1960 : बॉम्बे राज्य का विभाजन कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाए गए।
  • 1966 : पंजाब का पुनर्गठन कर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बनाए गए।
  • 1971-72 : पूर्वोत्तर में मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय को राज्य का दर्जा मिला।
  • 2000 : उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ बने।
  • 2014 : आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना का गठन हुआ।


राज्य पुनर्गठन का महत्व

  1. भाषाई पहचान की स्वीकृति – जनता की भावनाओं और भाषाई विविधता को सम्मान मिला।
  2. राजनीतिक स्थिरता – क्षेत्रीय असंतोष कम हुआ और लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत हुई।
  3. प्रशासनिक सुविधा – छोटे और संगठित राज्यों के कारण शासन अधिक प्रभावी हुआ।
  4. राष्ट्रीय एकता – विविधता के बावजूद संघीय ढाँचा मजबूत हुआ और अखंड भारत की अवधारणा साकार हुई।


चुनौतियाँ

  • कभी-कभी भाषाई या क्षेत्रीय आधार पर आंदोलन अलगाववाद को बढ़ावा देते हैं।
  • नए राज्यों की मांगें आज भी जारी हैं, जैसे विदर्भ, गोरखालैंड, बुंदेलखंड आदि।
  • संसाधनों का विभाजन और राजधानी चयन विवादों का कारण बनते हैं।


निष्कर्ष

राज्य पुनर्गठन भारतीय संघ की मजबूती का आधार है।
1956 का राज्य पुनर्गठन अधिनियम भारत की लोकतांत्रिक परंपरा और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है। इसने यह दिखा दिया कि भारत विविधताओं को दबाकर नहीं, बल्कि उन्हें सम्मान देकर एकजुट रह सकता है।

आज भारत की ताकत उसकी यही एकता में विविधता है, और राज्य पुनर्गठन इस सिद्धांत की सबसे बड़ी उपलब्धि है।



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