क्योटो प्रोटोकॉल(Kyoto Protocol)
वैश्विक जलवायु परिवर्तन समझौते की ताकत और 10 अहम तथ्य
विषय-सूची (Outline in Table Format)
क्रमांक | शीर्षक (Heading) |
---|---|
1 | क्योटो प्रोटोकॉल का परिचय |
2 | क्योटो प्रोटोकॉल क्यों ज़रूरी था |
3 | इस समझौते की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि |
4 | क्योटो प्रोटोकॉल के मुख्य उद्देश्य |
5 | विकसित और विकासशील देशों की भूमिका |
6 | ग्रीनहाउस गैसों में कमी के लक्ष्य |
7 | लचीले तंत्र (Flexible Mechanisms) |
8 | कार्बन ट्रेडिंग की अवधारणा |
9 | क्योटो प्रोटोकॉल और भारत |
10 | समझौते की प्रमुख उपलब्धियाँ |
11 | चुनौतियाँ और आलोचनाएँ |
12 | पेरिस समझौते से तुलना |
13 | क्योटो प्रोटोकॉल का भविष्य |
14 | आम जनता के लिए सीख |
15 | निष्कर्ष |
16 | अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs) |
1. क्योटो प्रोटोकॉल का परिचय
क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) 1997 में जापान के क्योटो शहर में अपनाया गया एक अंतर्राष्ट्रीय जलवायु समझौता है। इसका मुख्य उद्देश्य औद्योगिक देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के उत्सर्जन को कम करना था। यह समझौता 2005 में लागू हुआ और इसे पर्यावरणीय कूटनीति का एक ऐतिहासिक कदम माना जाता है।
2. क्योटो प्रोटोकॉल क्यों ज़रूरी था
पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा था। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे थे कि यदि ग्रीनहाउस गैसों पर नियंत्रण नहीं हुआ तो जलवायु परिवर्तन का असर गंभीर होगा। बाढ़, सूखा, ग्लेशियर पिघलना और समुद्र-स्तर बढ़ना जैसी समस्याएँ सामने आ रही थीं। ऐसे समय में एक वैश्विक स्तर पर सहमति की ज़रूरत थी।
3. इस समझौते की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1992 में रियो डी जेनेरो (ब्राज़ील) में "अर्थ समिट" आयोजित हुआ था। वहीं से जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय बातचीत शुरू हुई। इसी प्रक्रिया ने 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल को जन्म दिया।
4. क्योटो प्रोटोकॉल के मुख्य उद्देश्य
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी
- नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देना
- देशों के बीच तकनीकी सहयोग
- पर्यावरणीय न्याय और समानता सुनिश्चित करना
5. विकसित और विकासशील देशों की भूमिका
क्योटो प्रोटोकॉल में "साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारी" (Common but Differentiated Responsibility) का सिद्धांत अपनाया गया। विकसित देशों को अधिक जिम्मेदारी दी गई क्योंकि उन्होंने ऐतिहासिक रूप से प्रदूषण ज़्यादा किया था।
6. ग्रीनहाउस गैसों में कमी के लक्ष्य
क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 37 विकसित देशों को 2008 से 2012 तक के समय में उत्सर्जन को 1990 के स्तर से लगभग 5% कम करना था।
7. लचीले तंत्र (Flexible Mechanisms)
समझौते में तीन लचीले तंत्र शामिल थे:
- क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (CDM)
- जॉइंट इम्प्लीमेंटेशन (JI)
- इंटरनेशनल एमिशन ट्रेडिंग (IET)
8. कार्बन ट्रेडिंग की अवधारणा
देश या कंपनियाँ अपने उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए "कार्बन क्रेडिट्स" खरीद और बेच सकती थीं। इसने पर्यावरण संरक्षण को आर्थिक दृष्टिकोण से जोड़ दिया।
9. क्योटो प्रोटोकॉल और भारत
भारत ने इस समझौते में सक्रिय भूमिका निभाई। भारत जैसे विकासशील देशों पर कोई बाध्यकारी उत्सर्जन लक्ष्य नहीं था, लेकिन CDM परियोजनाओं से भारत को आर्थिक और तकनीकी लाभ मिला।
10. समझौते की प्रमुख उपलब्धियाँ
- वैश्विक स्तर पर जलवायु मुद्दों पर सहमति
- नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में प्रगति
- कार्बन मार्केट का निर्माण
- पर्यावरणीय नीतियों के लिए एक आधार
11. चुनौतियाँ और आलोचनाएँ
- अमेरिका ने इस समझौते को कभी मंज़ूरी नहीं दी
- कुछ देशों ने लक्ष्यों को पूरा नहीं किया
- विकासशील देशों के उत्सर्जन पर कम ध्यान दिया गया
12. पेरिस समझौते से तुलना
पेरिस समझौता (2015) क्योटो प्रोटोकॉल से अधिक व्यापक और समावेशी है। इसमें सभी देशों को उत्सर्जन घटाने की जिम्मेदारी दी गई है, न कि केवल विकसित देशों को।
13. क्योटो प्रोटोकॉल का भविष्य
भले ही पेरिस समझौता इसका स्थान ले चुका है, लेकिन क्योटो प्रोटोकॉल ने दुनिया को जलवायु कूटनीति का रास्ता दिखाया। यह आने वाली पर्यावरणीय संधियों की नींव था।
14. आम जनता के लिए सीख
- व्यक्तिगत स्तर पर ऊर्जा की बचत करें
- नवीकरणीय ऊर्जा अपनाएँ
- वृक्षारोपण करें
- कार्बन फुटप्रिंट कम करने की कोशिश करें
15. निष्कर्ष
क्योटो प्रोटोकॉल जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में एक ऐतिहासिक और साहसिक कदम था। इसकी सीमाएँ होने के बावजूद, इसने दुनिया को सहयोग और समाधान की दिशा दिखाई।
16. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
Q1. क्योटो प्रोटोकॉल कब अपनाया गया था?
Q2. यह कब लागू हुआ?
Q3. भारत पर क्या ज़िम्मेदारियाँ थीं?
Q4. अमेरिका ने इसमें क्यों हिस्सा नहीं लिया?
Q5. पेरिस समझौता और क्योटो प्रोटोकॉल में क्या फर्क है?
Q6. कार्बन ट्रेडिंग क्या है?
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