दलबदल कानून (Anti-Defection Law)
भारतीय राजनीति में स्थिरता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए दलबदल कानून बनाया गया। यह कानून राजनीतिक दलों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को बिना कारण या लालच के दल बदलने से रोकने हेतु लागू किया गया था।
📜 संवैधानिक आधार
- 52वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 द्वारा जोड़ा गया।
- संविधान में दसवाँ अनुसूची (Tenth Schedule) के रूप में।
- उद्देश्य: राजनीतिक भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और अस्थिरता पर रोक लगाना।
⚖️ दलबदल की परिभाषा
यदि कोई सांसद (MP) या विधायक (MLA) –
- अपनी पार्टी से त्यागपत्र देता है, या
- सदन में अपनी पार्टी के निर्देश (Whip) के विरुद्ध मतदान करता है, या
- नामित सदस्य मनोनीत होने के 6 महीने के भीतर किसी पार्टी से नहीं जुड़ता / या बाद में पार्टी बदल लेता है,
तो वह दलबदलू (Defector) माना जाएगा।
🏛️ निर्णय का अधिकार
किसी भी सदस्य की अयोग्यता पर निर्णय का अधिकार- लोकसभा/राज्यसभा अध्यक्ष
- विधानसभा अध्यक्ष/परिषद अध्यक्ष के पास होता है।
✅ अपवाद (Exceptions)
- विलय (Merger) – यदि किसी दल के कम से कम 2/3 सदस्य किसी अन्य दल में विलय का निर्णय लें, तो इसे दलबदल नहीं माना जाएगा।
- अध्यक्ष/स्पीकर – यदि कोई सदस्य सदन का अध्यक्ष/सभापति चुना जाता है, तो उसे पार्टी छोड़ने पर दलबदलू नहीं माना जाएगा।
📊 प्रमुख संशोधन
91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003- मंत्रिपरिषद का आकार सीमित किया गया (लोकसभा/विधानसभा की कुल संख्या का 15%)।
- दलबदल को रोकने के प्रावधान और सख्त किए गए।
🌍 महत्व
- राजनीतिक स्थिरता बनाए रखना।
- भ्रष्टाचार और अवसरवादिता पर अंकुश।
- दल आधारित लोकतंत्र को मजबूती देना।
- जनता के मतदान अधिकार और जनादेश की रक्षा।
⚠️ चुनौतियाँ
- निर्णय का अधिकार अध्यक्ष/स्पीकर के पास होने से पक्षपात की संभावना।
- राजनीतिक दल व्हिप का दुरुपयोग करते हैं, जिससे विधायक/सांसद की स्वतंत्र अभिव्यक्ति सीमित हो जाती है।
- विलय प्रावधान का गलत उपयोग कर कई बार बड़े पैमाने पर दलबदल वैध ठहराया जाता है।
- लंबित याचिकाओं पर निर्णय में देरी।
✨ निष्कर्ष
दलबदल कानून ने भारतीय राजनीति में अवसरवाद और अस्थिरता को काफी हद तक नियंत्रित किया है। लेकिन, इसके कुछ प्रावधानों के कारण लोकतंत्र की आत्मा – स्वतंत्र अभिव्यक्ति और विचारों की विविधता – प्रभावित होती है। भविष्य में इस कानून को और पारदर्शी व निष्पक्ष बनाने की आवश्यकता है।
 
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